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पानी पूरी वाला



शहर के मुख्य चौराहे पर

ठीक फुटपाथ पर

ले ढकेल वह रोज

खड़ा होता था

लोगो को अपनी बारी

का इन्तजार रहता

जब कभी गुजरना होता

घर से बाहर

मैं भी नहीं भूलती

खाना पानी पूरी

बस पानी पूरी

खाते खाते

आत्मीयता सी हो

गई थी मुझे

जब कभी मेरा

जाना होता

तो वह भी कहने से

ना चूकता था

आज बहुत दिन बाद-----



वक्त बीतता गया

जीवन का क्रम चलता रहा

अनायास एक दिन वह

फेक्चर का शिकार

हो गया

तदन्तर अस्पताल में

सुविधाएं भी पैसे वालों के

लिए होती है ---------

पर वो बेचारा

जैसे तैसे ठीक हुआ

बीमारी ने आ घेरा

एक दिन बस शून्य में

देखते ही देखते

काल कवलित

हो गया

फिर बस केवल

संवेदनाएं ही संवेदना

     बस स़बेदना

बची सबकी



जीवन का करूणांत

तदन्तर

आत्मनिर्भर परिवारिक जनों की

दो रोज की रोटी ने

एक गहरी चिंतन रेखा

खींच दी



पर मैं और मेरी

आत्मीयता बाकी है

आज भी

क्योंकि व्यक्ति जाता है

जहां से

उसकी नेकी लगाव

आसक्ति रह जाती है

बाकी

पर वक्त छीन देता है

उसे भी

और घावों को भर देता है

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