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 मैं सड़क हूँ

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स्थिर अस्थिर टूटी-फूटी

निरन्तर घाव सहन करती

एक छोर से दूसरे छोर

कहाँ तलक चली जाती



 इंसानियत से हो बेखबर

एक जमाना  लिया भोग

उत्थान -पतन गुजरा कब

 बदली बिगड़ी तकदीर



इतिहास ने पन्ने है पलटे

सुल्तान आते -जाते देखें

खून-खरावों से मैं नहायी

सुहाग भी उजड़ते देखे



एक फुट तक गहरे घाव

इन घावों पर रोज उछल

हड्डी -पसली हो रहे चूर

आती है तब मेरी सूध



केयर भी होती नैहर जैसी

पर न मिलती खुराक पूरी

तौंदें भरते अपनी - अपनी

यहाँ भी फिफ्टी -फिफ्टी



बारिश में तरबतर सराबोर

जल मग्न रह  मचाती शोर

मेरे साथ अनेकों का अस्तित्व

पड़ जाता खतरे जा  गढ्ढो



देख भगवाँ अब तू ही देख

दर्द न पाया मैंने किस अंग

फिर जिंदा ही रहूँगी हमेशा

मेरा बने कोई मकबरा न



डॉ मधु त्रिवेदी






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